कुछ लेना ना देना मगन रहना राधेकृष्णा
अभिमान किस बात का....
.आखिर यह भी तो नही रहेगा, एक दिन सब चला जायेगा".. एक फकीर अरब मे हज के लिए पैदल निकला। रात हो जाने पर एक गांव मे शाकिर नामक व्यक्ति के दरवाजे पर रूका। शाकिर ने फकीर की खूब सेवा किया। दूसरे दिन शाकिर ने बहुत सारे उपहार दे कर बिदा किया। फकीर ने दुआ किया - "खुदा करे तू दिनों दिन बढता ही रहे।"
सुन कर शाकिर हंस पड़ा और कहा - "अरे फकीर! जो है यह भी नहीं रहने वाला है"। यह सुनकर फकीर चला गया ।
दो वर्ष बाद फकीर फिर शाकिर के घर गया और देखा कि शाकिर का सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि शाकिर अब बगल के गांव में एक जमींदार के वहां नौकरी करता है। फकीर शाकिर से मिलने गया। शाकिर ने अभाव में भी फकीर का स्वागत किया। झोपड़ी मे फटी चटाई पर बिठाया और खाने के लिए सूखी रोटी दिया।
दूसरे दिन जाते समय फकीर की आखों मे आंसू थे। फकीर कहने लगा अल्लाह ये तूने क्या किया ?
शाकिर पुनः हंस पड़ा और बोला "फकीर तू क्यों दुखी हो रहा है ? महापुरुषों ने कहा है की "खुदा इन्सान को जिस हाल मे रखे खुदा को धन्यवाद देकर खुश रहना चाहिए, समय सदा बदलता रहता है और सुनो यह भी नहीं रहने वाला है"।
फकीर सोचने लगा - "मैं तो केवल भेस से फकीर हूं सच्चा फकीर तो शाकिर तू ही है।"
दो वर्ष बाद फकीर फिर यात्रा पर निकला और शाकिर से मिला तो देख कर हैरान रह गया कि शाकिर तो अब जमींदारो का जमींदार बन गया है। मालूम हुआ कि हमदाद जिसके वहां शाकिर नौकरी करता था वह संतान विहीन था मरते समय अपनी सारी जायदाद शाकिर को दे गया।
फकीर ने शाकिर से कहा - "अच्छा हुआ वो जमाना गुजर गया। अल्लाह करे अब तू ऐसा ही बना रहे।"
यह सुनकर शाकिर फिर हंस पड़ा और कहने लगा - "ऐ फकीर ! अभी भी तेरी नादानी बनी हुई है"। फकीर ने पूछा क्या यह भी नही रहने वाला है ? शाकिर ने उत्तर दिया - "या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और इसका अंश आत्मा। "फिर फकीर वहाँ से चला गया ।
डेढ साल बाद लौटता है तो देखता है कि शाकिर का महल तो है किन्तु कबूतर उसमे गुटरगू कर रहे हैं क्योंकि शाकिर कब्रिस्तान में सो रहा है। उसकी बेटियां अपने-अपने घर चली गई है और बूढी पत्नी कोने मे पड़ी है ।
कह रहा है आसमां यह समां कुछ भी नहीं। रो रही है शबनमे नौरंगे जहाँ कुछ भी नहीं। "जिनके महलों मे हजारो रंग के जलते थे फानूस। झाड़ उनके कब्र पर बाकी निशां कुछ भी नहीं।
फकीर सोचता है - "अरे इन्सान ! तू किस बात का अभिमान करता है ? क्यों इतराता है ? यहां कुछ भी टिकने वाला नहीं है दुख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है - "पड़ोसी मुसीबत मे है और मैं मौज में हूं। लेकिन सुन न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा।
सच्चे इन्सान हैं वे जो हर हाल मे खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल मे खुश रहते हैं। हो गये बेहाल तो उस हाल मे खुश रहते हैं।"धन्य है शाकिर तेरा सत्संग और धन्य हैं तुम्हारे सद्गुरु। मैं तो झूठा फकीर हूं, असली फकीर तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी कब्र देखना चाहता हूं, कुछ फूल चढा कर दुआ तो मांग लूं।
फकीर कब्र पर जाता है तो देखता है कि शाकिर ने अपनी कब्र पर लिखवा रखा है- "आखिर यह भी तो नहीं रहेगा"।