आनन्द स्वरूप में भगवान श्री कृष्ण हमेशा नन्द और यशोदा के गोकुल में ही प्रकट होते हैं.
यशोदा = हमेशा दूसरों को यश प्रदान करने वाली "बुद्धि"
नन्द = दूसरों की निन्दा न करने वाला "मन"
गोकुल = इन्द्रियों का समूह "शरीर"
कृष्णा = भगवान का आनन्द स्वरूप
जब व्यक्ति की बुद्धि सदैव दूसरों को यश देने वाली हो जाती है तो यह बुद्धि "यशोदा" बन जाती है, और व्यक्ति का मन दूसरों की निन्दा से रहित हो जाता है तो यह मन "नन्द" बन जाता है, तब इन्द्रियों के समूह "गोकुल" रूपी शरीर में आनन्द रूप में भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं।
तब हम गाने लगते हैं....
नन्द के आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की।
यशोदा के लाला भयो, जय कन्हैया लाल की।
गोकुल में आनन्द भयो, जय कन्हैया लाल की।
क्या हमारे गोकुल में कृष्ण प्रकट हुये? यदि नहीं तो हमें आज से ही बुद्धि को यशोदा और मन को नन्द बनाने का प्रयत्न आरम्भ कर देना चाहिये।
भगवान तो अजन्मा है उनका जन्म नहीं होता वे तो प्रकट होते है अपने भक्तो के लिए भगवान श्री कृष्ण का प्राकट्य मथुरा के कारागार में हुआ परन्तु असल में तो भगवान दो रूपों से प्रकट हुए,एक रूप से मथुरा में देवकी के गर्भ से और दूसरे रूप से यशोदा जी के गर्भ से,जब वासुदेव बाल कृष्ण को लेकर गोकुल गए तो वहाँ पहले से ही यशोदा जी ने दो जुडवा बच्चो को जन्म दिया.
जिस बाल कृष्ण को लेकर गए थे उन्हें यशोदा जी ने यहाँ प्रकट हुए बाल कृष्ण में मिला दिया और कन्या को लेकर वापस आ गए, फिर भगवान का जन्मोत्सव तो गोकुल में मनाया गया और एक दो दिन नहीं एक दो महीने नहीं ६ माह तक गोकुल में केवल कृष्ण जन्मोत्सव मनाया गया.
नंद बाबा दोनों हाथो से लुटा रहे है,इतना लुटाया कि कुबेर जी कि भी मति बौराय गई,चिंतामणि सामान्य पत्थर बन कर रह गई और कल्प वृक्ष सामान्य वृक्ष की भांति खड़ा नन्द बाबा के दान को देख रहा है. नंद कछु इतनो दियो यह देखी कुबेरहू कि मति बौरी, देखत व्रज ही लुटाय दियो न बची बछिया छछिया न पिठौरी
जब बाबा देने लग गए, तो ब्रह्मा जी ने कमंडल उठा लिया.
देवताओ ने पूंछा - ब्रह्मा जी कमंडल क्यों उठाया ?
तो ब्रह्मा जी बोले - जिन ब्राह्मणों के भाग्य में दरिद्रता लिखी है अब वे तो दरिद्र रहे नहीं, इसलिए कमंडल के जल से उनकी भाग्य की रेखाओं को मिटा रहा हूँ,
जब नन्द उत्सव शुरू हुआ तो रावल से राधा रानी जी के माता-पिता वृषभानु और कीर्ति रानी आ गई और सारे रावल वाले भी आ गए, सब नाच रहे है सबने देखा केवल नंदबाबा नहीं नाच रहे, तो वे उन्हें नचाने के लिए बीच में उन्हें खड़ा कर देते है,बाबा बोले - मो पे नाचते नाय बने.
सभी हँसने लगे सब ने नंद बाबा के कमर में एक पीताम्बर बांधा और एक ओर व्रज वाले है तो दूसरी ओर रावल वाले है नन्द उत्सव में दूध दही के सरोवर से बन गए है नंद भवन के आँगन में, अब एक ओर से रावल वाले खिचे तो दूसरी ओर से व्रज वाले खिचे बाबा मथानी की तरह घुमने लगे, और नीचे दूध दही का सरोवर तो है ही,समुद्र मंथन का द्रश्य बन गया.
वहाँ मंदराचल जो जड़ है यहाँ नन्द बाबा बीच में खड़े है यहाँ का पर्वत चेतन है, वहाँ वासुकी नाग की नेति है, यहाँ प्रेम की रस्सी है. वहाँ मथन पर विष निकला था, यहाँ मंथन के पहले ही आनंद रूपी अमृत प्रकट हो गया.वहाँ चौदह रत्न निकले, यहाँ लाखो रत्न लुटाए, वहाँ एक सुरभि गाय निकली, यहाँ लाखो गाये बाबा दान दे रहे है.
भगवान के जन्म पर संतो के विचार है टीकाए है. भगवान जैसे अनंत है वैसे ही उनकी लीलाये भी अनंत है और भगवान की लीला में तर्क नहीं होना चाहिये वहाँ तो केवल श्रद्धा ही होनी चाहिये उनकी लीलाये तो बड़े बड़े संत महात्मा भी नहीं समझ सकते फिर भगवान की लीला हम संसार में फसे हुए तुच्छ प्राणी की समझ से परे है.